शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

जर्रे जर्रे में अपनी पहचान ढूंढ़ती हूँ

जो हो मुझसा वैसा जहान  ढूंढ़ती हूँ 
जर्रे जर्रे में अपनी पहचान ढूंढ़ती हूँ 
मेरा ह्रदय वह अथाह सागर है 
कितनी हीं भावनाओं कि नदियाँ 
आ मिली हैं इसमें 
अतल गहराइयों में दफ़न हैं 
कितने अरमानो के मोती 
भावों के लहरों में लहराता 
डूबता उतराता ह्रदय सागर 
उद्वेलित रहता हर पल 
अनंत के चरणों में 
उड़ेलकर सारे भाव 
हो जाना चाहता है शांत 
बिल्कुल शांत ..........
मेरी आँखें वह असीम आकाश 
कितने ही स्वप्न मेघ घिर आते हैं 
विधि के चरणों में बरस मिट जाते हैं 
आकाश फिर हो जाता है सुना 
सपनों के लाखों तारे टिमटिमाते हैं 
घटता बढ़ता चंदा भी जगमगाता है 
पर हकीकत का सूर्य सब निगल जाता है 
ये आँखें पूरे संसार को ले लेना 
चाहती है अपने आगोश में 
और फिर पलकों कि चादर ओढ़े 
सो जाना चाहती है अनंत कि गोद में 
हमेशा हमेशा के लिए .............

11 टिप्‍पणियां:

  1. इश्वर करे की तलाश जल्द पूरी हो.
    अच्छी कविता

    जवाब देंहटाएं
  2. आपको और आपके परिवार को मकर संक्रांति के पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ !"

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर भावपूर्ण प्रवाहमयी रचना...

    जवाब देंहटाएं
  4. शायद सबसे मुश्किल यही होता है..... अपनी पहचान की तलाश ..... प्रभावी रचना

    जवाब देंहटाएं